रात Poem by Lalit Kaira

रात

ये रात
तुम्हारे आबनूसी बालों से भी गहरी है,
और वैसे ही बिखरी हुई है
चाँद के आस-पास।
चांदनी ओढ़ के बैठे हैं -
पहाड़, उन्नत, शक्तिशाली अपराजेय.....
नागिन सी बलखाती ये नदी
ये नदी तुम्हारी कमर की तरह
बल खाती हुई- गुनगुनाती हुई-
मेरी कहानी सुना देती है
मुझ ही को,
ऊंचे चीड़ के हाथों में
खनकते हैं झींगुर-टिड्डियाँ
हवा का लहराता आँचल
मखमल सा ढक देता है मेरे चेहरे को
देखो न! तुम्हारी जुल्फों की तरह बिखर गई है रात
चलो कुछ बात करते हैं
हाँ, ये ठीक रहेगा
सुनो तो- आज उदासी आयी थी
दोपहर में
उसने पूछा, चाय की चुस्की लेते हुए, बहुत मुस्कुरा रहे हो?
"इंतजार है रात का।"
वह उठी और चली गयी बिना बोले
चलो
अरे तुम भी तो कुछ बोलो
अंधेरा है
चुप्पी है
पीड़ा है
मगर उदासी नहीं है
चलो भी कुछ तो बोलो
वो कहानी ही सुना दो
जीतू बगड़वाल की और मुझे रुला दो।

Thursday, December 7, 2017
Topic(s) of this poem: love and life,melancholy,pain
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Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
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