मुंतज़िर ही रहा ये आलम Poem by Ahatisham Alam

मुंतज़िर ही रहा ये आलम

मुन्तज़िर ही रहा ये आलम
विसाले यार के लिये
शबे तवील फिर आयी
किसी इंतज़ार के लिये
कहकशाँ-ओ-माहताब देखा किये
नज़रें प्यासी ही रहीं
तेरे दीदार के लिये।

मुंतज़िर ही रहा ये आलम
Saturday, January 20, 2018
Topic(s) of this poem: love
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
As
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success