वृद्धजन खुली किताब हैं Poem by KAVIKUMAR SUMIT

वृद्धजन खुली किताब हैं

Rating: 5.0

वृद्धजन खुली किताब हैं

हाँथ में लाठी मन में आशिष
निर्भय पौधों को सींचें ख्वाब हैं
समसामयिक इतिहास की बारिस
वृद्ध जन खुली किताब हैं

तर्क-वितर्क भेद न रंजिश
सब दुर्गुण के दाब हैं
हंसी ठिठोली न कोई बंदिश
हर व्यंजन और स्वाद हैं

राम राज राह रवि हर्षित
जाड़े में सुखदायी आग हैं
लाड़-प्यार मुस्काते सचरित
रसिक प्रेम के बाग़ हैं

करते क्यूँ इनको हो उपेक्षित
सब बालक ये बाप हैं
संगति कर जो होता संचित
दुनिया का शाह-ए-बाद है

कवि - कविकुमार सुमित

वृद्धजन खुली किताब हैं
Sunday, March 4, 2018
Topic(s) of this poem: life,morality,old age
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
यह कविता वृद्धजन के लिए लिखी गयी है उन्हें आत्मार्पित है |
COMMENTS OF THE POEM
Jazib Kamalvi 04 March 2018

Seems A fine start with a nice poem, Kavikumar. You may like to read my poem, Love and. Thanks

1 0 Reply
kavikumar Sumit 24 September 2018

welcome and offcourse

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