एक हरकत हुई की हम चौक गए,
नज़रे कहाँ जिस्म के अंदर झांक पाती हैं I
मेरी नाराज़गी, ख़ुशी, ये सब दिखावा है,
एक चेहरा बाहर, अंदर छलावा है,
मोहोब्बत, इश्क़, खुदाई, क्या नहीं कहते लोग,
एक ज़िन्दगी दी जो उसने, उसी को चढ़ावा है I
मुझसे बेहतर मुझे जो समझे,
पूरी दुनिया जिसकी तलाश करूँ,
वो घर के अंदर ही थे मौजूद,
प्रीत करूँ? क्या बात करूँ?
एक ज़िन्दगी मिली जो इंसानो के बीच,
तो इश्क़ करो! फिर क्या करो?
इश्क़ न हो मुकम्मल तो नफरत,
इंसानियत की क्या बात करो?
मेरा मिलना तुमसे, फिर मिलना,
मिलना और फिर मिलना,
जो मिलना तो एक आखिरी बार,
खुदा-ए-दोज़क-ए-दरबार मिलना,
जो हुए जुदा तो तसल्ली दोगे,
मेरी ऑंखें जो नम तो थोड़ा तुम भी रोओगे,
जो कल मिलना तो फिर ज़िक्र होगा,
सजा जो पाए थे हम, क्या तुम भी भोगे?
मेरी ज़िन्दगी मेरी है,
तुम्हारी तुम्हारी,
इश्क़ में सौप दी हमको,
क़यामत-ए-खुमारी I
जो चाहो मुझे तो पहले खुद को चाहो,
मुझे मुझसे ज़्यादा तुमसे प्रीत नहीं होगी,
कुछ अपने है जो कल चले जायेंगे,
उनसे भी ये प्रीत विपरीत नहीं होगी I
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Har nazm shair ki acchootii takhleeq hoti hai, Sandeep; aayaa pasand aaye na aaye.