मैं ख्वाब सिरहाने रखती हूँ,
फिर नींद से बातें करती हूँ।
क्यूँ देर से आई आँखों में,
मैं उससे शिकायत करती हूँ।
मन मचल रहा था पहरों से,
कुछ भड़क रहा था शहरों में।
चंद बूँदें सुकून की बरसें जो,
आँखें मिच दुआएँ करती हूँ।
मैं ख्वाब सिरहाने रखती हूँ,
फिर नींद से बातें करती हूँ।
टिक-टिक कर वक्त फिसलता है।
जब चाँदनी छिटक कर अंबर में,
चंदा भी सुकून से सोता है।
मेरे मन में कुछ-कुछ होता है।
इस सन्नाटे की चादर में,
मैं खुद से सुलह कर लेती हूँ।
मैं ख्वाब सिरहाने रखती हूँ,
फिर नींद से बातें करती हूँ।
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem