प्राकृतिक Poem by Shipra singh (ships)

प्राकृतिक

उठो अब अपनी आंखें खोलो
देखो प्रकृति ने आह भरी
उठो करो प्रणाम अपनी माता पिता का
तब तकपक्षी चहचहाने आते|
तो सुनो उनके मीठे स्वर
कितने मीठे कितने अच्छे
हम सब को भाते हैं|

सब भागे सब भागे भागे
क्योंकि सूरज कब चलती है
दोपहर हुई अब सन्नाटे छाए
कुछ सोए जागे जागे|

दोपहर गई है शाम अब आई
चुन्नू मुन्नू गए दौड़ लगाने
तब तक आसमान से बूंद में आई
भागो भागो वर्षा आई|

धीरे-धीरे थम गई वर्षा
खुशी-खुशी आरती खेलने बच्चे
लगे सुहानी प्राकृतिक अब
जब ठंडी ठंडी हवा बहा ती
तब मन मोह की आती जाती,
लो शाम गई रात आई
कुछ सुये कुछ जागे जागे
यह उमंग है लेकर सोते
कि कल प्राकृतिक फिर आ भरेगी|

प्राकृतिक
Friday, October 12, 2018
Topic(s) of this poem: natural law
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