थोड़ा सा शहर Poem by Ajay Amitabh Suman

थोड़ा सा शहर

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मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है
और थोड़ा सा जहर।
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हर गली हर नुक्कड़ पे
खड़खड़ आवाज है,
कभी शांति जो छाती थी
आज बनी ख्वाब है।
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जल शहरों की आफत
देहात का भी कहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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जो कुंओं से कूपों से
मटकी भर लाते थे,
जो खेतों में रोपनी के
वक्त गुनगुनाते थे।
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वो ही तोड़ रहे पत्थर
दिन रात सारे दोपहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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भूँजा सत्तू ना लिट्टी ना
चोखे की दुकान है,
पेप्सी कोला हीं मिलते
जब आते मेहमान हैं।
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मजदूर हो किसान हो
या कि हो खेतिहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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आँगन की तुलसी अब
सुखी है काली है,
है उड़हुल में जाले ना
गमलों में लाली है।
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केला भी झुलसा सा
ईमली भी कटहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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बच्चे सब छप छप कर
पोखर में गाँव,
खेतिहर के खेतों में
नचते थे पाँव।
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अब नदिया भी सुनी सी
पोखर भी नहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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विकास का असर क्या है
ये भी है जाना,
बिक गई मिट्टी बन
ईट ये पहचाना,
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पक्की हुई मड़ई
गायब हुए हैं खरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है
और थोड़ा सा जहर,
मेरे गाँव में होने लगा है
शामिल थोड़ा शहर।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
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थोड़ा सा शहर
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Ajay Amitabh Suman

Ajay Amitabh Suman

Chapara, Bihar, India
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