मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है,
और थोड़ा सा जहर।
--------
मचा हुआ है सड़कों पे,
वाहनों का शोर,
बुलडोजरों की गड़गड़ से,
भरी हुई भोर।
--------
अब माटी की सड़कों पे,
कंक्रीट की नई लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
---------
मुर्गे के बांग से होती,
दिन की शुरुआत थी,
तब घर घर में भूसा था,
भैसों की नाद थी।
--------
अब गाएँ भी बछड़े भी,
दिखते ना एक प्रहर,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
तब बैलों के गर्दन में,
घंटी गीत गाती थी,
बागों में कोयल तब कैसा,
कुक सुनाती थी।
--------
अब बगिया में कोयल ना,
महुआ ना कटहर,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
पहले सरसों के दाने सब,
खेतों में छाते थे,
मटर की छीमी पौधों में,
भर भर कर आते थे।
--------
अब खोया है पत्थरों में,
मक्का और अरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
महुआ के दानों की ,
खुशबू की बात क्या,
आमों के मंजर वो,
झूमते दिन रात क्या।
--------
अब सरसों की कलियों में,
गायन ना वो लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
वो पानी में छप छप,
कर गरई पकड़ना,
खेतों के जोतनी में,
हेंगी पर चलना।
--------
अब खेतों के रोपनी में,
मोटर और ट्रेक्टर,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है,
और थोड़ा सा जहर।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
A heartbreaking lament on the evils of urbanisation creeping in into our gaudy peaceful, agriculture oriented villages. Beautifully written. Top score.
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem
2. I loved the rhyme scheme too.