"छप्पर ना उड़े कोई"
हवाऐं चलती हैं,
बड़ी भली लगती हैं,
चैन मिलता है सुकून मिलता है,
जीवन भी इन्हीं के सहारे चलता है,
न जाने क्या हो जाता है
कभी-कभी इनको,
झंझावात बनकर,
अपने क्रोध का भुजाहरा करती हैं,
पेड़ों को उखाड़ना,
छप्परों को उड़ाना,
इनका सगल बन जाता है,
सदियों से ऐसा ही होता आया है,
आगे भी होता रहेगा,
ये सब प्रकृति के खेल है,
वो धरती पर,
खेलती रहती है।
इन रहस्यों को
आज तक कोई नहीं जान पाया,
मैं तो निपट अनाड़ी हूँ,
प्रकृति के रहमों करम पर जिंदा हूँ।
इस विषय में,
उसे निर्देश भी नहीं दे सकता,
हाँ अफसोस जरूर जाहिर कर सकता हूँ।
ऐ हवाओं गरीबों के छप्पर ना उड़ाओ।
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