प्रेम ग्रंथ Poem by Sanjay Amaan

प्रेम ग्रंथ

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मौसम के बदलते ही
तुम आ जाना,
जला के रखूँगा मै अलाव.
वैसे तो मौसम के बदलते ही
मै जला देता हूँ अलाव -
लेकिन तुम नहीं आते, ?
सर्द रात की बारिस में -
मुसलसल मैं कांपता रहता हूँ.
लेकिन तुम नहीं आते?
सोचता, काश तुम होते
तो तुम्हारे ज़िस्म कि गर्म खून कि गर्मी से मै मरने से बच जाता.
लेकिन तुम होते नहीं...?
अलाव जो मैंने जला रखे हैं..
उसी को ताप कर शांत होने कि कोशिश में -
तुम्हारे यादों की लकड़िया खत्म हो चुकी है.
काश तुम इस बार आ जाते.
कुछ यादें समेट लेता तन्हाईओ के बिस्तर में.
बेनूर सी मेरी अंजुमन में -
तुम्हारी लबों कि थरथराहट से शब्द चुरा कर प्रेम ग्रंथ लिखता.

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Sanjay Amaan

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