यूँ ही यारों के संग मिल बैठ जब बचपन की बातें होती,
आखोँ के सीपी में जगमगा उठते हैं मीठे यादों के मोती|
बीच दुपहरी नंगे पाँव भागना तितलियों के पीछे,
और थक हार कर बैठ जाना आँगन के उन पेड़ों के नीचे|
लोरियों की गरमाहट में लिपटी होती थी हमारी हर रात,
सो जाते थे पलक झपकते इक प्यारी मुस्कान के साथ|
बारिश के ठहरे पानी पर तैरती थी कागज़ की कश्ती,
शायद बह गयी उसी धार में, बचपन की वो सारी मस्ती|
आज अकेलेपन में करते हैं हम उन्हीं दिनों से बातें,
पूछते हैं क्यूँ चले गए बीते पल बन देकर यादों की सौगातें|
यह सुनकर उसने कहा मुझे, यादों का कोई ओर छोर नहीं,
बाँध ले इस समय को जो बनी ऐसी कोई डोर नहीं|
कर ले अब तू लाख जतन, बचपन कभी ना लौट पाएगा,
जो है उसे ही हरसू जी ले, क्योंकि ये वक्त भी गुज़र जाएगा||
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