तड़प Poem by Kumar Mohit

तड़प

ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, तड़पता तेरी ख़ातिर है;
ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, मचलता तेरी ख़ातिर है;

तू समझे ना कि तुझको पसन्द, इतना क्यूँ करता हूँ;
तू माने या न माने, मैं सिर्फ तुझ पर ही मरता हूँ;
तेरी सूरत मेरे मन की दुनिया में बनी मूरत;
तू समझेगी नहीं फिर भी रगों में खून बहता तेरी खातिर है;
ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, तड़पता तेरी ख़ातिर है;

निशा में चाँद जो चमके, रौशनी जग में होती है;
परन्तु चाँद में खुद की, रौशनी शुन्य होती है;
सहारा सूर्य का लेकर निखरता है हमेशा वो;
इस निखरते चाँद का सूरज बेशक़ तू मेरी ख़ातिर है;
ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, तड़पता तेरी ख़ातिर है;

जो इतना तू संभलती है नए रिश्ते बनाने में;
जो इतना तू ठहरती है नयी मंज़िल को में;
जो इतना तू हिचकती है किसी से बोल पाने में;
ये तेरा हिचकिचाना ही बढ़ाता चाह मेरी तेरे खातिर है;
ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, तड़पता तेरी ख़ातिर है;

ज़माना कोसता मुझको तू इतना क्यूँ तड़पता है;
लबों पे मुस्कराहट रख अकेले क्यूँ सुलगता है;
जो तेरी थी नहीं पगले तू उसको पायेगा कैसे;
मैं कहता मर के जीना भी मेरा अब ख़ातिर है;
ये मेरा दिल भी इतना क्यूँ, तड़पता तेरी ख़ातिर है;

Sunday, May 18, 2014
Topic(s) of this poem: love
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success