एक बेचैनी उभर आई है Poem by Lalit Kaira

एक बेचैनी उभर आई है

जिंदगी कहाँ सम्हल पाई है
फिर एक बेचैनी उभर आई है

बेटों की गलती पे बापों ने
बेटियाँ पेड़ों पे लटकवाई है

जान कर कि मेरी जान गई
उनकी सूरत निखर आई है

मेरे गीतों से हँसी छीन कर
तेरी मुहब्बत सँवर पाई है?

न मतला मुकम्मिल न मकता
ललित रो रो के गज़ल गाई है

Wednesday, August 6, 2014
Topic(s) of this poem: love
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Lalit Kaira

Lalit Kaira

Binta, India
Close
Error Success