कविता की टिहरी /A Poem by Shirish Kumar Mourya Poem by gautam Singh

कविता की टिहरी /A Poem by Shirish Kumar Mourya

पेड़ से गिरे पत्ते पक्षी बनकर मंडराते हैं आकाश में
पक्षी ज़मीन पर पत्तों की तरह झड़कर गिर जाते हैं
एक डूब चुकी ज़मीन पर यह दृश्य मुझे इस तरह दिखाई देता है कि कहीं दूर कोई और भी
ऐसे ही देख रहा है इसे

अपने आसपास में डूब जाने का अवसाद मुझे इसी तरह घेरता और छोड़ता है

हर ओर पानी भरता जाता है
गांव मेरा डूब से बहुत दूर किसी और पहाड़ की धार पर है
और उधर किसी बड़ी पवित्र नदी का प्रवाह भी नहीं
गाड़-गधेरे हैं बस कुछ
और मैं किसी पवित्रता के लिए दु: खी नहीं हूं

मेरा अवसाद मुझसे बाहर है और मुझसे बड़ा है

टिहरी डूब गई
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

लोग उजड़ गए
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

स्मृ्तियां विलाप रही हैं
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

ख़ुद को खोजते मेरे पहाड़ अपने शैशव में ही खंख हुए जा रहे हैं
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

धरती में इतना क्षोभ इकट्ठा है कि 8 के पैमाने का भूकंप कभी भी आ सकता है
तो क्यां हुआ बिजली बन रही है

अनगिन परिवार जान से जा सकते हैं
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

यहां एक कवि को पहला वाक्य अभिधा और दूसरा व्यंजना बोलना पड़ रहा है
लक्षणा के बिना जीवन अपनी कोमलता खो रहा है
तो क्या हुआ बिजली बन रही है

मैं घर के सारे चमचमाते बल्ब अब फोड़ देना चाहता हूं
हालांकि वो ज़रूरी हैं पर उनसे भी ज़रूरी चीज़ें थीं जीवन में नहीं रहीं
रास्तों पर पुरानी रोशनी चाहता हूं जिसे हम बिना बिजली के सम्भव कर लेते थे
पर ये भावुक विद्रोह है विचारहीनता इसे भटका सकती है

ऐसा नहीं हो सकता था कि नई रोशनी भी बची रहती और टिहरी भी

देहरादून और दिल्ली में कविता की टिहरी डूब गई है
उसका कुछ नहीं किया जा सकता
सिवा इसके कि हम अपनी-अपनी टिहरी संभाल कर रखें
और ताउम्र यह कहने का अधिकार भी
कि एक ज़माने में न जाने क्या हुआ था
पेड़ों के पत्तें पक्षी बनकर मंडराने लगे थे
और पक्षी सूखे हुए पत्तों की तरह एक डूब रही ज़मीन पर झड़ रहे थे

देहरादून और दिल्ली में कविता की टिहरी डूब गई थी
हम क्रोध और अवसाद के साथ देख रहे थे उसका डूबना
***
(वरिष्ठ हिन्दी कवि लीलाधर जगूड़ी के लिए सादर)

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