बेफिक्र रात की जुगाड़ में, सुबह-ओ-दोपहर यूँ उलझा बैठा हूँ
बरामदे में इंतज़ार में बैठी, मौत की उलझने सुलझा बैठा हूँ
बदन की हर नस, गुहार - ए- आराम नहीं करती आजकल
कानों में खबर है उनके, मैं जिस्म गिरवी रखवा बैठा हूँ
बारिश की बूदें कतराती है, मुझ शख्स पे गिरने से
में हर कतरे कतरे को, भूख प्यास समझा बैठा हूँ
खाने का वक़्त कलाई घडी, पूछ के सो जाती है
उसे क्या पता पसीनो को पीके, मैं क्या बचा बैठा हूँ
अपनी धूप खर्च करके, चाहे कुछ कमाया या नहीं
हाथो में दबी छुपी लकीरों की, तक़दीर बदलवा बैठा हूँ
पूछती नहीं है ज़िन्दगी, काम में इतने जुतने का सबब 'चिराग '
कल रात उसे जरुरत की, फेहरिस्त बतला बैठा हूँ
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