लुभावने घन घिर आये हैं।
भोग के जोगी फिर आये हैं।
बरसात की बूदों के साथ,
टर्रटर्राते मेढ गिर आये हैं।
मकर उलटे पांव आ गया।
लगता है चुनाव आ गया।
सूरज ऑंखें मीच रहा है।
पत्थर भी पसीज रहा है।
झूठे मगर मीठे वादों पर,
चाँद भी देखो रीझ रहा है।
जुगनू भी भाव खा गया।
लगता है चुनाव आ गया।
कई वादों की झड़ी लगी है।
सौगातों की कड़ी लगी है।
कितने समय रह पायेगा ये,
इस बात की घड़ी लगी है।
परदेशी मेरे गांव आ गया।
लगता है चुनाव आ गया।
मौसम थोड़ा नम हुआ है।
वादा ही मरहम हुआ है।
पांच वर्षों से बसा दिल में,
दर्द अब कुछ कम हुआ है।
इसे वादों में चाव आ गया।
लगता है चुनाव आ गया।
- एस० डी० तिवारी
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