Halaat Poem by Manisha Kholiya

Halaat

Rating: 5.0

अक्सर हम हालात के आगे मजबूर हो जाते है
चाहे हम कितने ही सही हो पर लोगों की नज़र में क़सूरवार बन जाते है
सब खेल क़िस्मत का है कहे कर बात खतम तो नहीं कर सकते
जितना मिला उसी में खुश रहे कर आगे बढ़ना तो कम नहीं कर सकते
फिर क्यू एक मोड़ पे कदम इस कदर काँप उठते है
जिस रास्ते पर आराम से चल सकते थे वहाँ हम दो घड़ी ढहर भी नहीं सकते
उलझने बढ़ती गयी उन्हें सुलझाने का मौक़ा भी ना मिला
दर्द बढ़ता रहा उसपे मरहम लगाने का मौक़ा भी ना मिला
किसी ने कहा हमें खुश रहो, दुनिया अपने आप बदल जाएगी
तो रख ली एक झूठी मुस्कान चेहेरे पे बाक़ी सब तो खुश हुए ये बदलाव देख कर
पर हम खुद घुट रहे थे अपने ये खामोशी और अकेलेपन के हालात देख कर
वक्त के डोरी पे नहीं रही हमारी लगाम वो तो गुजरता चला गया
हम कुछ समझ पाते उससे पहले ही हमें ज़िंदगी का सबक़ एक इनाम की तरह थमा कर चला गया

Halaat
Wednesday, July 15, 2020
Topic(s) of this poem: thoughts
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