Jaade Ki Aadhi Raat - A Hindi Poem Poem by Vikas Sharma

Jaade Ki Aadhi Raat - A Hindi Poem

जाड़े की आधी रात

जाड़े की आधी रात का समय था
घना कुहरा चारों और छाया था
अँधेरी ठिठुरती रात में हर तरफ सन्नाटा था

वह संदिग्ध सी हालत में घूम रहा था
बंद दुकानों के बाहर मानो कुछ ढूंढ रहा था
गौर से देखा शायद गत्ते के खाली डिब्बे चुन रहा था

पैरों में चप्पल पहने था
ऊपर एक फटा कम्बल लपेटा था
चेहरे पर बड़ी हुई दाढ़ी थी पर उम्र से जवान लगता था

चौकन्नी आँखों से इधर उधर देखता
कभी ठिठकता फिर पलटता
जैसे उसकी तलाश का कोई ख़ास इरादा था

अचानक वो एक और तेज़ी से लपका
फुर्ती से किसी वस्तु को उठाने के लिए झुका
उठाते ही उसने उस वस्तु को कम्बल के अंदर छिपाया था

और फिर वह तेज क़दमों से चल पड़ा
रेलवे स्टेशन की और जहाँ था इक रिक्शा खड़ा
वहां पहुँच वो सड़क किनारे जा फुटपाथ पर बैठा था

कम्बल से उसने चंद गत्ते और इक लकड़ी की फट्टी निकाली
और बड़ी मेहनत के बाद उसने एक छोटी सी आग जला ली
आग सेंकते हुए वह बीडी के कश फूंक रहा था और सोच रहा था

अगर 2 बजे की मेल से भी कोई सवारी न मिली तो
हे भगवान्! कोई दूर पार की न सही आस-पास ही की हो
वरना कैसे चलेगा, इतनी महंगाई में पहले ही मुश्किल से बसर होता था

इक तो लोग भी अब कारों में सफ़र करने लगे
रिक्शा तो रिक्शा, रेलों से भी टलने लगे
वोह भी ज़माना देखा है जब आधी रात को भी यहाँ सवारियों का तांता था

ऊपर से अब ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही पड़ने लगी
कुहरा तो कुहरा, ओस भी अब पड़ने लगी
इन सर्दियों में अगर दिन में दिहाड़ी का काम ही मिल जाता तो अच्छा था

इसी उधेड़-बुन में वह बीडी फूंकता जाता
की 2 बजे की मेल का शोर है आता
हाँ साहब रिक्शा रिक्शा करता वो स्टेशन की और मुंह करके चिल्लाता जाता था

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