जाड़े की आधी रात
जाड़े की आधी रात का समय था
घना कुहरा चारों और छाया था
अँधेरी ठिठुरती रात में हर तरफ सन्नाटा था
वह संदिग्ध सी हालत में घूम रहा था
बंद दुकानों के बाहर मानो कुछ ढूंढ रहा था
गौर से देखा शायद गत्ते के खाली डिब्बे चुन रहा था
पैरों में चप्पल पहने था
ऊपर एक फटा कम्बल लपेटा था
चेहरे पर बड़ी हुई दाढ़ी थी पर उम्र से जवान लगता था
चौकन्नी आँखों से इधर उधर देखता
कभी ठिठकता फिर पलटता
जैसे उसकी तलाश का कोई ख़ास इरादा था
अचानक वो एक और तेज़ी से लपका
फुर्ती से किसी वस्तु को उठाने के लिए झुका
उठाते ही उसने उस वस्तु को कम्बल के अंदर छिपाया था
और फिर वह तेज क़दमों से चल पड़ा
रेलवे स्टेशन की और जहाँ था इक रिक्शा खड़ा
वहां पहुँच वो सड़क किनारे जा फुटपाथ पर बैठा था
कम्बल से उसने चंद गत्ते और इक लकड़ी की फट्टी निकाली
और बड़ी मेहनत के बाद उसने एक छोटी सी आग जला ली
आग सेंकते हुए वह बीडी के कश फूंक रहा था और सोच रहा था
अगर 2 बजे की मेल से भी कोई सवारी न मिली तो
हे भगवान्! कोई दूर पार की न सही आस-पास ही की हो
वरना कैसे चलेगा, इतनी महंगाई में पहले ही मुश्किल से बसर होता था
इक तो लोग भी अब कारों में सफ़र करने लगे
रिक्शा तो रिक्शा, रेलों से भी टलने लगे
वोह भी ज़माना देखा है जब आधी रात को भी यहाँ सवारियों का तांता था
ऊपर से अब ठण्ड भी कुछ ज्यादा ही पड़ने लगी
कुहरा तो कुहरा, ओस भी अब पड़ने लगी
इन सर्दियों में अगर दिन में दिहाड़ी का काम ही मिल जाता तो अच्छा था
इसी उधेड़-बुन में वह बीडी फूंकता जाता
की 2 बजे की मेल का शोर है आता
हाँ साहब रिक्शा रिक्शा करता वो स्टेशन की और मुंह करके चिल्लाता जाता था
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem