माँ का आँचल Maa Ka Aachal Poem by Ahatisham Alam

माँ का आँचल Maa Ka Aachal

Rating: 5.0

मैं भी बचपन में
माँ के आँचल से लिपटा करती थी
वो कभी प्यार से सर सहलाती
और कभी मैं उनसे झगड़ा करती थी

बात बात पर डाँट लगाना
फिर अगले ही पल मनाना
क्या खूब था गुज़रा
बचपन का वो वक्त सुहाना

फिर एकदिन एक आँधी आई
मैं भी कुछ समझ न पायी
एक तेज़ हवा के झोंके में
सूखे पत्तों की तरह सब अरमान
उजड़ गए
अब न वो बचपन की हंसी है
ना ही उस माँ का साया है
आज हर अपना चेहरा
अपना होकर भी पराया है

आज ज़िन्दगी सांस चलने का नाम है
आज भी शायद मुझे बहुत काम है
आज कोई ऐसा नहीं जो मेरी
ख़ामोशी को समझ सके
आज कोई भी ऐसा नहीं
जिसके पहलू में मैं रो सकूँ

मेरा दर्द केवल यही है
आज सबकुछ है मगर
कुछ नहीं है।

Saturday, April 2, 2016
Topic(s) of this poem: love
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