मन चालीसा
मन के होयँ चालीस घोड़े।
बागडोर बिन ही सब दौड़ें।।
वैभव के पीछे सब भागें।
चोर सभी के अंदर जागे ।।
हर अश्व की दौड़ के आगे।
मन की बुरी, नियत ही भागे ।।
विषय डगर पर मन के घोड़े।
ले जाकर पापों में छोड़ें।।
दौड़ लगा उनकी चंचलता ।
मन की तीव्र करे व्याकुलता ।।
सदा विजय की चिंता होती ।
निष्प्रभाव यदि निंदा होती ।।
मन की इच्छा - ख्याति दूर तक ।
धन, अकूत, प्रतिष्ठा और पद ।।
पास में न हो चाहे पाँखें ।
मन परन्तु उड़ना ही चाहे।।
कभी प्यार के लिए भटकता ।
कभी पाने को ये सफलता ।।
जीना चाहे सौ के ऊपर ।
ढोना न हो भार कोई पर।।
और और करता रहता है।
मगर परिश्रम से डरता है।।
और और करता रहता है।
मगर परिश्रम से डरता है।।
सत्संग और मंदिर में भी।
मन लगता है रंजन में ही।।
जितना पेट भरो घोड़ों की।
भूख लगी जाती ढेरों सी।।
आरम्भ में बाँध लेते तो।
अपनी सीमा में रहते वो।।
छोड़ देने पर खुला उनको।
जंगली सा बन जाते हैं वो।।
दौड़ाओ ना घोड़े इतना।
औरों को पड़ जाय रोकना।।
रोको तो हो दुखी आत्मा।
न रोका तो दूषित आत्मा।।
लगाम लगाने के हैं यन्त्र।
मात्र विवेक, संयम; ये मंत्र।।
रखे जो इन्हें नियंत्रण में।
आनंद हो उनके जीवन में।।
लगाम लगा लो इन तीनो पर।
महत्वाकांक्षा, इच्छा अरु डर।।
सन्मार्ग पर, जो है चलता।
वही बहादुर, पाय सफलता।।
(c)एस० डी० तिवारी
S.D. TIWARI
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