पोर-पोर छा गया बसंत
मन मयूर पुलकित है, रोम-रोम सुरभित है|
अंग-अंग हो गया मृदंग, मन को मेरे भा गया बसंत|
पोर-पोर छा गया बसंत|
आमों की अमराई पुष्पों की तरूणाई|
अलसाई दुल्हन की मोहक सी अंगड़ाई|
मदमाती धरती से उठ रही उमंग|
मन को....................................
झूम-झूम पेड़ों की डालियाँ हैं गा रहीं|
धानी चुनर ओढ़े गोरी इठला रही|
मादक पुरवाई बिखेरती सुगंध|
मन को.......................................
गदराई धरती को छेड़ती हवाएं|
मन को गुदगुदा रहीं हैं प्यार की अदाएं|
प्रेम प्रीति-रीति की उठ रही तरंग|
मन को.......................................
साकी की अलकों से उठ रही बाहर है|
गली-गली ठुमक रही गाँव गुलज़ार है|
कहीं उड़ मचल रहा फाग कहीं छन रही है भंग|
मन को......................................
साँझ ढरे पश्चिम में उड़ रहा गुलाल|
मानो गोपियन संग होरी खेलें नंदलाल|
मोहे छेड़ो ना श्याम मोहे ना करो तंग|
मन को...........................................
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
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