जो न भर सका झोली अपनी कमाई से
वो क्या जी सकेंगे गैरोँ की खिदमताई से
खटमल सा चूसते हैं चारपाई मेँ चिपक कर
मच्छर सा काटते हैं रजाई मेँ दुपककर;
भिखारियोँ ने भी हाँडी भर ली
चौखटोँ पर दस्तक लगाकर
मजदूरोँ ने भी टेँट कंस ली
खून-पसीना बहाकर।
पर मक्खियोँ से गये-गुजरे
इन साहबोँ की चाल देखो
मैलोँ सा चिपके रहते हैं
बजबजाते पसीने सा हाल देखो
ढोड्हा नही भरता
बुल्लोँ सा फूल जाते हैं
अन्दर पस सी भरी रहती है
फोडोँ सा चिकना जाते हैं।
पुछल्ला थाम भर पाये
दामन छूट नहीं सकता
बेशरम करकटोँ का बेवशी मेँ दम नहीं घुटता
न्याय की दाग देते हैं
दरकार पाने भर दो
कफन तक बेँच लेते हैं
कमीशन आने भर दो।
ऐ खुदा! ऐसे शरीफोँ की
दूर बस्ती बसा क्योँ नहीं देते!
बच जाए दुनिया की शराफत
इसकी शोहरत बचा क्योँ नहीं लेते!
नवम्बर ०४ २००६
विवेक तिवारी
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