मेरी भी सुनो
डूब गये दरिया में,
जिंदगी की आस लिये,
ना मिला वतन,
ना मंजिल ही मिली,
समुद्र की गहराइयों में ही,
फकत जिंदगी मिली।
रहते थे सदियों से,
ना कोई हमसे शिकायत थी,
शिकायत हमने जो की,
बेशुमार शिकायतें हमसे हो गई,
पत्थर हमने उठा लिए,
संगिने उन्होंने उठा ली,
अब पूछते हैं हमसे वो
ये हिमाकत तुमने क्यों की?
जुल्म-सितम करते रहे,
और गैरों सा बर्ताव भी,
आज पूछते हो हमसे,
ये गुस्ताखी तुमने क्यों की।
सदियों से रहते थे,
हमसे ना कोई शिकायत थी,
शिकायत जो हमने की,
बेशुमार शिकायते हमसे हो गई।
ना कोई सहूलियत,
ना कोई लियाकत दी,
आज हमसे पूछते हैं,
ये गुस्ताखी क्यों की।
बेजार है हम तो,
गुनहगार भी,
कोई उनसे भी तो पूछे,
हमने ये हिमाकत क्यों की।
अपना वतन अपने मिट्टी छोड़कर,
कौन जाता है भला,
जब अपने ही बन जाए दुश्मन,
तब भला कैसा वतन, कैसी मिट्टी।
जार-जार रोने का मन करता है
मगर बेकार है सब कुछ,
जब सामने खड़ा हो,
कोई फकत सौदागर।
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