फुदकते फुद्कते चली आती है गौरैया
चिर- चिर संगीत से भर जाता है अगंना
छोटी सी चिडिया दिखती अती सुदंर
मन मोह लेता है हम सबका भरपुर
इंत्तीजार में बितती है सुनने को उसका सूर
बिछा देता हुँ कुछ दाना आगंन में उसी क्षण
तृप्त होकर खाता है देके सबको खुशी का लहर
लगता है धरा पर नृत्यरत पैरों का नूपुरु
दिन भर मगन है बनाने को एक घोंषला छत के निच्चे
धूप, वर्षा, ठंड को सेहते बना लेता है घोंषला एक
यदी टूट जाता है कभी तूफान से
निराश ना होते, फिर से लग जाता है काम से
देता है अनवरत कर्ममय जीवन का उदाहरण
आओ सिखे उससे यह महत ज्ञान
अंधाधुंध शहरीकरण ने ले लिआ चिडिया का वसेरा और जान
वचा नहीं रहने को एक चिडिया का स्थान
समय के साथ घटता गया गौरैया का संख्या मे कमी
भाविदिनों में हो सकता है वे लुप्त है भविष्य वाणी
धरती से पूर्ण विदाय होने से पहले
आओ वचायें हम इसे अपने छतो, वालकनी मे कुछ अंश दे कर
डाल दे कुछ दाना अपने आगंन पे
करे प्रयोग गोबर की खाद, ताकी मिल सके उन्हें भोजन कुछ
सुनने को फिर वही चिर- चिर संगीत का सूर
खुद जीयेंगे और जिनेदेगें पशु, पक्षी, कीडे, पौधे और वृक्षमान
तब होगा धरती पर मानव का जयगान
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem