आमिया पर झूले
पढ़ते थे अमिया पर झूले
अब नदारत वो हो गये।
न जाने कहां चला गया वह मतवाला,
छेड़ता था जो तान बांसुरी की।
नाचती थी कठपुतलियां,
न जाने वो कहां चली गई।
नाचता था भालू,
बच्चे ताली बजाते थे।
बंदर-बंदरिया का तमाशा,
आम बात थी।
आज नेट है, लैपटॉप है,
बच्चों की आंखों पर चश्मा है।
मैदान सुनसान है विरान है,
माँलस व बिग बाजार शहर में आम है।
समय बदलता है
ये भी आम बात है।
कला संस्कृति की तस्वीर बदलती है,
ये भी आम बात है।
आम आदमी उसमें खो गया है,
ये बात सच है।
उसका रुदन खो सा गया है,
मशीनों के शोर में,
यह असामान्य बात है,
और हमें अस्वीकार है।
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