हे पर्वत (The Mountain) Poem by Dr. Sada Bihari Sahu

हे पर्वत (The Mountain)

Rating: 5.0

तुम कैलाश हो, तुम हो नियमगिरि
और तुम गोवर्धन
धरती पर विराजमान, तुम ही तुम
तुम वर्णित हो, युगों-युगों से लेखकों के लेख में
कालिदास के काव्य में
या कभी बच्चों के चित्राकंन में
तुम पूज्य हो, तुम्हें नमन
हे कैलाश, हे गोवर्धन

तुम श्रेष्ठ हो, तुम सुदृढ़
और तुम महान
तुम हो संजीवनी, जीवन के संग
हो तुम प्रकृति का बडा अवदान
पर आज तुम लुट चुके हो
खो चुके हो अपना सम्मान
मानव के कुचक्र संग,
आज तुम छिन्न-भिन्न
भुलाकर तुम्हारा बलिदान
करता है तुम्हारा खनन
विकास की झूठी आड़ में
करता है वार शरीर पर
भ्रमित हो चुका मानव
तोड चुका है गिरिमान
फैलता गया सागर का तन
आदिवासी के मन में जागे है प्रश्न
कैसे जिएगा अपना जीवन
विद्वज्जन कर रहे आह्वान
कर लो आत्म मंथन
शीघ्र समझ लो प्रकृति का नियम
बचालो पर्वतों को, कर लो प्रण
नहीं तो...
मिट जाएगी यह धरती
न रहोगे तुम न बचेंगे हम

Tuesday, December 5, 2017
Topic(s) of this poem: nature
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Poem is in Hindi language and about the Mountain.
This express concern about the unwanted digging of mountain for development and mining.
COMMENTS OF THE POEM
Dr Dillip K Swain 07 December 2017

Beautiful poem.. enjoyed the expression..10

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