हो गयी दुर्लभ बहुत ईमानदारी दोस्त
है मगर आशा मेरी बिल्कुल न हारी दोस्त
अब नहीं कोई पढ़ाता सत्य की गीता
अब नहीं है राम कोई अब नहीं सीता
पूछता है कौन अब ईमानदारी को
पूजते उसको समर जिसने यहाँ जीता
क्या वे शिक्षक क्या प्रशासक क्या वे नेतागण
कर रहे प्रति पलसभी बस झूठा संभाषण
आँख है लेकिन कहाँ है दृष्टि जो देखे
और कहाँ जिह्वा करे जो सत्य का वर्णन
दोस्त आओ हम हटाएँ इस तिमिर को घोर
ले चले मानव हृदय को रोशनी की और
पाप का कल्मष कटेगा एक दिन निश्चय
थाम लो मीत मेरे सत्य की यह डोर
साक्ष्य है इतिहासमें रावण रहें या कंस
डूबता है एक दिन तो पाप का अवतंस
नीर से करता विलग जो क्षीर को ए मीत
तुम बनो,मगर बनसको ऎसे विवेकी हंस
हम करेंगे दोस्त मिल ऎसे कोई सदुपाय
इस धरती पर जहाँ हो मनुज समुदाय
सब सदाचारी समुन्नत और हों सत काम
हर दिशा में सत्य का उन्मेष सा हो जाये
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दोस्त आओ हम हटाएँ इस तिमिर को घोर ले चले मानव हृदय को रोशनी की और पाप का कल्मष कटेगा एक दिन निश्चय थाम लो मीत मेरे सत्य की यह डोर....humble expression, a beautiful piece of work! Thanks for sharing...10
धन्यवाद दिलु. You like the poem. Thanks a lot.