सूर्यास्त हुआ, संध्या का तारा
पुकारे मुझे जैसे कोई बंजारा।
इच्छा है मेरी मत करो प्रलाप
निकलूँ जब मैं अंतिम यात्रा पर - सहज, निष्ताप।
वह ज्वार जो गतिमान होते हुए भी है सुप्तप्राय,
संतृप्त इतना की हवा व फेन भी उसमें न समाएं,
सागर से जैसे निकला मोती हो कोई भावविभोर,
और लौटे वापिस घर की ओर।
गोधूलि और संध्या प्रहर,
फिर अन्धकार गहन-प्रखर।
विदाई का किसी को न हो संताप
निकलूँ जब यात्रा पर अपने आप।
काल और स्थान की सीमा के पार
हो जाऊँगा, होकर प्रलय पर सवार,
आशा है मिलूंगा अपने खेवनहार से ससम्मान
हो जाएगा जब यह शरीर निष्प्राण।।
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