शब्द (Word) Poem by Sandhya Jane

शब्द (Word)

हाँ. मैं शब्द हुँ
कभी बोलता हुँ,
कभी रुकता हुँ
कभी झुकता हुँ
और, कभी झुकाता भी हुँ

किसी के मन को हँसाते
किसी के भावनों को दुतकारते
किसी की ज़िंदगी को निहारते
किसी की आत्मा को झिंझोड़ते
और मैं चला -
कभी मुस्कुराते, कभी सिसकते...

मैं करण का शब्द था
द्रौपदी का अभिमान था
युधिष्ठिर का अंध था
दुर्योधन का अहंकार था
लेकिन, मैं श्रीकृष्ण ज्ञान भी था

मैं एक स्त्री की मर्यादा हुँ
मैं एक पुरूष का साहस हुँ
मैं किसी शिशु का शोक हुँ
मैं किसी शिक्षक का स्त्रोत हुँ
और, मैं करडों का अन्तरात्मा भी हुँ

किसी के लिये मैं वरदान हुँ
किसी का लिये मैं अभिशाप हुँ
किसी लेखक का मैं आत्मा हुँ
किसी संत का मैं विश्वात्मा हुँ
लेकिन, मैं नकारात्मक नहीं हुँ

मौन मुझे मार नहीं सकता
मन के अन्दर ढुंठ नहीं सकता
जिवहा पर मैं रुक नहीं सकता
लेकिन, किसी को ज़िंदगी दुं
मैं ऐसा भी एक शाश्वत हुँ

गीता के किसी श्लोक में
कालकोठरी के किसी दिवांरो पे
किसी पुस्तक कें कुछ पन्नों में
किसी कलाकार की चित्र में
जंगल की किसी गुफ़ा में
और रहुंगा मैं -
अन्नभिनन रूप में, अनगिनत सदियों में...

संध्या

Thursday, March 12, 2020
Topic(s) of this poem: spirituality
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
We often underestimate the value of 'word'. how these word impact people's lives, human history.
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 12 March 2020

शब्द की सत्ता जो प्रगट है उसमें भी है और जो कल्पनातीत है उसमें भी है. शायद इसीलिए शब्द को ब्रह्म भी कहा गया है. धन्यवाद.

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