(रे बदरा रे)
घटा घनघोर बन कर गरजता क्यों फ़क़त है
पता है जानता हूँ मेरे घर पे ना छत है
दिखा औक़ात अपनी ज़रा जम कर बरसजा
टिपिर टिप टिप बरसना यही आदत ग़लत है
रे बदरा रे एएएएएएएएएएएएएएए रे बदरा
रे बदरा रे एएएएएएएएएएएएएएए रे बदरा
नशे में चूर क्यों है बता मग़रूर क्यों है
समंदर से निपटना नहीं मंज़ूर क्यों है
नदी, तालाब, नाला बनाकर बाँट डाला
बिछड़े पिछड़ों पे ही क्यों ज़ुल्म इतना करत है
रे बदरा रे एएएएएएएएएएएएएएए रे बदरा -2
छोटी मछली बेघर बेबस तड़प रही लाचारी में
झूम झूम कर बरस रहा तू मगरमछ की यारी में
सूखी रेत ये तप्ति धरती आस लगाए बैठी है
तुझे नहीं क्यों फ़िक्र है होती बन्जर खेत पठारों की
रे बदरा रे एएएएएएएएएएएएएएए रे बदरा -2
चमकना फिर धमकना ख़ौफ़ दहशत की आंधी
कच्चे घर को डुबोया निकली बेबस समाधि
हवा का एक झोंका तेरी रंगत बदल दे
संभलजा होश में आ अपनी संगत बदल दे
नदी, तालाब, नाला समंदर बन ना जाए
रे बदरा रे एएएएएएएएएएएएएएए रे बदरा -2
: नादिर हसनैन
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चित्र और गीत का ऐसा अनोखा संगम आपने प्रस्तुत किया है कि दिल वाह वाह कर उठा. हाँ, इसके हमराह आपने समाज की एक ज्वलंत समस्या की ओर भी ध्यान खींचा है जिसका जल्द समाधान निकलना बेहद जरुरी है. हार्दिक धन्यवाद, मित्र.
Thanks Mr.Rajnish Manga Ji for your Valuable Comment, Thanks