किसी के फटे में टांग अड़ाने से बाज़ आ.
कहता हूँ दूसरों को सताने से बाज़ आ.
गर छोड़ दी शराफत तूफ़ान बन वो टूटेगा.
शरीफों को जरा आँख दिखने से बाज़ आ.
क्यों इतना बहकता है तूं किसको सुनाता है.
अब बेवज़ह का शोर मचाने से बाज़ आ.
ख़ुद की हरकतों से तूने हमें रूलाया.
अब दूसरों का दोष गिनाने से बाज़ आ.
यूँ तो तेरी फ़ितरत है चोरी और सीनाजोरी.
गैरों के हक़ पे दांत गड़ाने से बाज़ आ.
मज़हब और जांति-पांति का तेरा चुनावी चौसर.
अहले गुलशन के गुलों को तो लड़ाने से बाज़ आ.
लूटता है देश तूं और कहता है देश सेवा.
इस सच को अब तो झूठ बताने से बाज़ आ.
दंगे और लूट-पाट की तेरी अज़ब सियासत.
मेरे वतन का खून बहाने से बाज़ आ.
आता है जब इलेक्सन तूं रोता है गिड़गिड़ाता है.
बहुरूपिये, अब तो दांत दिखाने से बाज़ आ.
माना कि तूं नेता है पर आदमी तो बन.
मेरे चमन में आग़ लगाने से बाज़ आ.
उपेन्द्र सिंह ‘सुमन'
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An eye opener poem, wonderfully crafted. It reminded me my poem captioned A burlesque on Politicians penned by me long back. Pl read it on PH at leisure. I am sure you will enjoy it. Thanks for sharing this thought provoking poem in couplets.10++ points.