खोजता हूँ मै जिसे अब वो शायद न रहा ।
यहाँ हर एक परिंदा अपनी पहचान खो रहा ।
कुछ तो मर गए और कुछ मर रहे हर पल ।
अब तो आदमी मे आदमी ही जिंदा न रहा ।
ये आत्मा भी अब परमात्मा की अंश न रही ।
हर मानव दानव मे तब्दील होता जा रहा ।
शायद ईमान नाम की तो कोई चीज न रही ।
जिसे भी देखो वही बेईमान होता जा रहा ।
आदमी की नीति और नीयत बिगड गई।
वो बुराईयों का कूडादान होता जा रहा है ।
रिश्तों मे अब वो पहले सी गरमाहट न रही ।
बस पैसा ही आप और श्रीमान होता जा रहा ।
सृजन...अशोक कुमार मौर्य
इलाहाबाद
8737994199
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