संसद हो गई शरण-स्थली डाकू और हत्यारों की.
देश द्रोहियों की पौ बारह बन आयी बटमारों की.
भारत माँ की लाज लुट रही सत्ता के गलियारों में.
लोकतंत्र हो रहा कलंकित दिल्ली के अंधियारों में.
गाँधी सुभाष के सपनों के वे कातिल हैं हत्यारे हैं.
बाड़ खा रही खेत अज़ब ये भारत के रखवारे है.
तड़प रहा मेरा स्वदेश अब राजनीति के चौसर पर.
देख हिन्द की दुसह दुर्दशा रोता है गिरिराज प्रवर.
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Baat 12 saal pehle ki ho ya ab ki giriraj pravar to har yug main roye hai aur kaaran kahin had tak hum rahe hain...nice poem..well penned.. :)