आजकल खुद से बहुत बातें करता हूँ,
तंग होकर बहुत सवाल करता हूँ,
कि क्या ये सब जो है,
सब कुछ 'मैं, मेरे भीतर, या मुझसे बाहर'
क्या सब कुछ सच में है?
या कहीं ये कोई सपना हो किसी और का, कहीं दूर से,
और हम, हम सब उस सपने में खेल रहे हैं,
और जिस दिन ये नींद खुलेगी,
तो कहीं ये लोग मेरा इस सपने से जाने का मातम तो नहीं मनाएंगे?
या फिर ये वहाँ भी होंगे मेरे इंतज़ार में?
पता नहीं, पर मुझे लगता है कि जो सब अब नहीं हैं हमारे आस पास, वो उस तरफ हमें फिर से मिल ही जाएँगे,
फिर कभी- कभी लगता है कि ये कोई नाटक भी हो सकता है,
जहाँ सब सबसे बेहतरीन अभिनय करते हैं,
और एक पात्र में बहुत से किरदार जी लेते हैं,
और फिर अपने हिस्से का नाटक करके चले जाते हैं नेपथ्य में वापस,
सब वहीं मिलेंगे, मंच के ठीक पीछे,
या फिर ये सब कुछ बिलकुल सच होगा,
क्योंकि मैं इसे महसूस भी कर सकता हूँ ये सब, जो सपने में नहीं होता होगा शायद,
ये सब मेरे ज्यादा सोचने का नतीजा भी हो सकता है,
पर क्या कोई और भी ऐसा सोचता है?
या बस मैं खुद सोते हुए दूसरों को जगाने में लगा हूँ।
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