फिसलन Poem by Anmol Phutela

फिसलन

कहने को हम ज़िन्दगी में ज़िन्दगी से काफी आगे निकल आते हैं,
मगर जब कभी वो पुरानी बातें याद आती हैं, हम सच में फिर से फिसल जाते हैं,
या शायद, मेरे दिल की चप्पल का तला काफी घिस चुका है,
हर बार तुम्हें देखते ही फिसल जाता है,

मैं बहुत आगे निकल आया हूँ,
तुम्हें बहुत पीछे छोड़कर,

लेकिन ये क्या हुआ? फिर से? आह! नहीं-नहीं, हैं?
मैं तो तुमसे माफी माँगना चाहता था बहुत समय से,
लेकिन तुम आज भी वैसी ही हो, निर्दयी,
मेरा दिल आज फिर से फिसल गया,

सच, मैं तुम्हें दोस्त बनाना चाहता था,
लेकिन ये तुम नहीं, ये मैं हूँ, आज भी वैसा का वैसा,
मैं आज फिर से फिसल गया,

एक संवाद और सब भूल गया मैं,

तुम ज़िन्दा हो यार, मैं नहीं हूँ,
तुम हो कहीं, मैं और कहीं हूँ,

फिरभी अबतक कहीं दिल के भीतर,
शायद तुम्हें पा जाने की दुआ कर रहा हूँ।

Wednesday, January 18, 2017
Topic(s) of this poem: love and friendship
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Related to a story where a man falls in love with his female friend but she as usual. ;)
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