मैं स्त्री हूँ
रत्नगर्भा, धारिणी
पालक हूँ, पोषक हूँ
अन्नपूणा,
रम्भा, कमला, मोहिनी स्वरूपा
रिद्धि- सिद्धि भी मैं ही,
शक्ति स्वरूपा, दुर्गा काली, महाकाली,
महिषासुरमर्दिनी भी मैं ही
मैं पुष्ट कर सकती हूँ जीवन
तो नष्ट भी कर सकती हूँ,
धरती और उसकी सहनशीलता भी मैं
आकाश और उसका नाद भी मैं
आज तक कोई भी यज्ञ
पूर्ण नहीं हो सका मेरे बगैर,
फिर भी
पुरुष के अहंकार ने, उसके दंभ, उसकी ताकत ने,
मेरी गरिमा को छलनी किया हमेशा ही
मजबूर किया अग्नि -परीक्षा देने को, कभी किया चीर-हरण...
उस खंडित गरिमा के घावों की मरहम -पट्टी न कर
हरा रखा मैंनें उनको
आज नासूर बन चुके हैं वो घाव
रिस रहे हैं
आज मैं तिरस्कार करती हूँ,
नारीत्व का, स्त्रीत्व का मातृत्व का, किसी के स्वामित्व का,
अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए
टकराती हूँ, पुरषों से ही नहीं, पति से भी
(पति भी तो पुरुष ही है आखिर)
स्वयं बनी रहती हूँ पाषाणवत, कठोर, पुरुषवत
खो दी है मैंनें
अपने अन्दर की कोमलता, अपने अन्दर की अलहड़ता,
अपने अन्दर की मिठास
जो लक्षण होता है स्त्रीत्व का
वह वात्सल्य,
जो लक्षण होता है मातृत्व का
नारी मुक्ति की हिमायती बनी में
आज नहीं पालती बच्चों को
आया की छाया में पलकर कब बड़े हो जाते हैं
मुझे पता नहीं, क्योंकि
मैं व्यस्त हूँ अपनी जीरो फिगर को बनाए रखने में,
मैं व्यस्त हूँ उंची उड़ान भरने में
लेकिन आत्म-प्रवंचना आत्मग्लानी जागी
जब मेरे ही अंश ने मुझे
दर्पण दिखाया
उसके पशुवत व्यवहार ने मुझे
स्त्रीत्व के धरातल पर लौटाया
एक क्षण में आत्म-दर्शन का मार्ग खुला
मेरी प्रज्ञा ने मुझे धिक्कारा
फटी आँखों से मैनें अपने को निहारा
पूछा अपने आप से, तुम्हारा ही फल है ना ये?
मिठास देतीं तो मिठास पातीं
संस्कार देतीं तो संस्कार पाटा वह अंश तुम्हारा
'पर नारी मातृवत' के
न बनता अपराधी वह
गर मिलती गहनता संस्कारों की
सृजन के लिए जरूरी हे
स्त्रीत्व, पौरुषत्व दोनों के मिलन की
मन और आत्मा के मिलन की
आज जाग गई हूँ
प्रण करती हूँ, अब ना सोउंगी कभी
आत्म-जागरण के इस पल को न खोउंगी कभी
पालूंगी, पोसूगी अपने अंश को
दूंगी उसे घुट्टी लोरियों में
अच्छा पुरुष, अच्छी स्त्री बनने की
जैसे दी थी जीजाबाई ने शिवाजी को
जैसे दी थी माँ मदालसा ने अपने बच्चों को
करेंगे मानवता का सम्मान
तभी बढ़ेगा
मेरी कोख का मान |
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