समंदर है प्यासा ये क्या कम है। Poem by Ahatisham Alam

समंदर है प्यासा ये क्या कम है।

समंदर है प्यासा
ये क्या कम है
बहुत ग़मज़दा अब
ये आलम है


सुना था बहूत दर्द देती है उल्फत
दिलों का सुकूँ छीन लेती है उल्फत
तजुर्बा किया तो पाया बस यही वजहे ग़म है
बहुत ग़मज़दा अब
ये आलम है

उसूलों की निशानी का
इस उजड़ी ज़िन्दगानी का
कुछ अलग ही मज़ा है यारों
इस आलम की कहानी का
तमाशाई है सारा जहाँ
सजा ये कैसा मातम है
बहुत ग़मज़दा अब
ये आलम है


हमे अब चुप ही रहना है
किसी से कुछ न कहना है
दर्द जो भी मिले हमको
ख़ामोशी से सहना है
मुस्कुराहट की हक़ीक़त में
कोई आँख तो नम है
बहुत ग़मज़दा अब
ये आलम है
समंदर है प्यासा
ये क्या कम है।

Friday, January 5, 2018
Topic(s) of this poem: love
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