जिन्दगी की भागदोड़ Poem by Kezia Kezia

जिन्दगी की भागदोड़

जिन्दगी की भागदोड़ में,

बीत जाते हैं कितने पल

हम मायूस हो याद करते हैं वो गुजरे हुए पल

वो हर लम्हा आँखों में उभरता है

जिसमे थे नित नए सपने बुने

जिसमे थी उन सपनों को साकार करने की आरज़ू

जिसमे थे कुछ अनजाने गम

जिन्हें जिन्दगी में न होने की करते थे तम्मना

जिसमे थे कुछ भूले बिसरे गीत

जिन्हें गुनगुनाने का होसला था भरपूर

हर पल रात को देखा सपना सा लगता

फिर उभरते लेम कि तस्वीर धुंदली हो जाती

तब सोचते, जिन्दगी के वो पल

रेत की तरह मुट्ठी से फिसल गए

उन्हें मुट्ठी में बांधे रखने के लिए

कुछ नमी की जरूरत पड़ी

वो नमी हमे ना पा सके

हर लम्हा कण कण होकर गिरता गया

ख्याल आया तो देखा कितनी दूर निकल आए

अब कणों को समेट पाना संभव नहीं

यही ग़म फिर अंकों में नमी बनकर उभरा

वो नमी बारिश की बूंदों के साथ मिला दी

और बीत गए वो लम्हे भी

जिन्दगी की भागदोड़ में,

लो फिर खो दिए हमने कुछ हसीन पल

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Thursday, April 6, 2017
Topic(s) of this poem: philosophical
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