पोशाक की सलवटें Poem by Kezia Kezia

पोशाक की सलवटें

हर सुबह अपनी पोशाक की

सलवटें मिटाने के लिये

गरम इस्त्री का बोझ डाल देता हूँ

और पोशाक की सारी

शिकन खतम कर देता हूँ

मरी हुई पोशाक को जिंदा कर

खुद पर एक सज्जन का रोब देखता हूँ

दिन भर की मश्शकत का बोझ

एक बार फिर धर देता हूँ

हर शाम उन्हीं मश्शकतो की सलवटों से भरी

पोशाक को फिर से खूंटी पर लटका देता हूँ

अब अपने रोब को आधा देखता हूँ

पोशाक पर निगाह जमाता हूँ

रात भर ऐसे ही सोचकर

सुबह फिर से अपनी दी हुई सलवटों को

मिटाने के लिये

बेचारी पोशाक पर आग बरसाता हूँ

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Sunday, April 16, 2017
Topic(s) of this poem: philosophical
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