शरणार्थी Poem by vijay gupta

शरणार्थी

शरणार्थी

सांसों की डोर ना टूटे,
ये ही आज मेरी तमन्ना है ।

खतरे में है मेरा वजूद,
उसे बचाने की जद्दोजहद में लगा हूं।

जंगल लांधे दरिया,
लांधे बड़े-बड़े समुंदर।

आज इस बेगानी धरती पर,
आस टिकाऐ खड़ा हूं।

याचक हूं आज मैं,
कल तक दाता बना था ।

औरो का सहारा था,
आज मोहताज बना हूं।

इंसानियत के नाम पर,
दुनिया साथ है मेरे,
टेंट, दवाइयां, कपड़े, रोटी,
भेज सभी रहे मुझको ।

मेरी जन्मस्थली अशांत है,
ना चैन है ना सुकून,

जिंदगी की डोर न जाने कब टूट जाए,
इसका भी ना किसी को कुछ पता है ।

मैं शरणार्थी हूं,
मेरा वजूद हमेशा से ही कायम है ।

जब से इस धरती पर आया,
खून खराबा मारकाट साथ लाया,
लोग जान बचाकर पहले भी भागते थे,
आज भी भाग रहे हैं ।

आधुनिक समय में यह समस्या,
विकराल रुप धारण किये हैं,

आधी धरती खून से सनी है,
शांति अमन की आस लिये,
इंसान भागा भागा फिर रहा है ।

और शरणार्थी का तमगा,
उस पर चस्पा हो गया है ।

Monday, June 5, 2017
Topic(s) of this poem: refugee
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 05 June 2017

आधी धरती खून से सनी है, इंसान भागा भागा फिर रहा है.... शरणार्थी.... //.... कविता एक भयावह सत्य से रू-ब-रू करवाने का एक सफल प्रयास है.

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