आजकल एक अजीब से संक्रमण ने दिलो दिमाग को घेर रखा है, मानो उदासी ने घर बना लिया, बेचैनी सी है, अचानक किसी ने दरवाज़ा खटखटाया! दीदी बधाई देदो खुश रहोगी हमेशा, तन्द्रा टूटी तोह गहरे सोच के साये ने पीछा छोड़ा, उसकी तीखी आवाज़ ने झकझोर सा दिया था, मैले कुचैले कपड़ो में भी चेहरे पर चांदी सी चमक, मैं उसे देखती सी रही एकटक सी उसने पुछा था ज़ोर लगाकर अरे मोहिनी सी क्या देखती हो, कितनी खूबसूरत हो तुम, मुझे तोह न मर्द बनाया न औरत आधी अधूरी से वज़ूद में जी रही हूँ, क्या आधा मर्द आधा औरत होना अधूरे होना है? या फिर यह कोई मनोदशा है? , हम सब अधूरे ही तोह हैं, सब अभावों में ही तोह जीते हैं, कभी यह नहीं तोह कभी वह नहीं, कभी वेट बढ़ गया तोह परेशानी कभी कम् हो गया तोह दिक्कत, कभी बच्चे ने टॉप नहीं किया तोह प्रॉब्लम, कोई गोरा होना चाहता है तोह कोई सांबला, आई फ़ोन नहीं लिया तोह दिक्कत, मानो सब के सब किसी रेस में हों, आखिर क्या चाहिए, मुझे भी तोह शांति चाहिए, यह शांति की चाहत भी तोह अशांत ही करती है, चाहत तोह रहेगी चाहत भले वह शांति के लिए हो या किसी भौतिक चीज़ के लिए, कब तक और कैसे जियेंगे ऐसे अभावों से भरे इस मनोदशा में? एक श्राप सा हो मानो पीछा कर रहा, ठहरने ही नहीं देता, ऐसे कई प्रश्नो ने मन पर चोट सी कर दी थी, फिर से उसने कहा खोयी ही रहगी अपने राजकुमार के सपनो में या कुछ देना चाहती भी हो, हलकी मुस्कराहट के साथ वह चली गयी ठुमक ठुमक कर और मैं दूर तक उसे देखती सी रही अवाक अपने प्रश्नो में उलझी सी...! !
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