रूप की देवी हो तुम। Poem by Ahatisham Alam

रूप की देवी हो तुम।

रूप की देवी हो तुम दया की दृष्टि कर दो
स्वसागर से प्रेम के मेरे तृषित ह्रदय को भर दो
रूप की देवी हो तुम दया की दृष्टि कर दो ।

ओ प्राण प्यारी, मन मंदिर में तुम्हारी
मूर्ति धर पूजा करूँ, मैं प्रेमी बन पुजारी
आकर्षण का मधुर विष देकर मुझे
साधना के संकीर्ण मार्ग पर लेकर मुझे
किया विवश की सहूँ मैं डगर की तपन
निज पीड़ा को कहूँ या दिखाऊं व्यथित मन
मात्र एक बार तुम्हारा दर्श पाने को आतुर
जड़ जिह्वा सचल मन से प्रार्थना कर रहे हैं अधर दो
रूप की देवी हो तुम दया की दृष्टि कर दो।

परम पवित्रता सी अलंकृत है तुम्हारी श्यामल छवि
रूप वर्णन कर सकता नही मैं उपासक, बन कवि
प्रेरणा का मार्ग देकर मुझे
स्वप्न नगरी में संग लेकर मुझे
किया विवश कि लिखूँ मैं विरह की चुभन
निज पीड़ा को कहूँ या दिखाऊं व्यथित मन
गीत है अधूरा अभी धरा पर प्रेम का
मधुवाणी से रागिनी बन तुम इसे स्वर दो
रूप की देवी हो तुम दया की दृष्टि कर दो
स्व सागर से प्रेम के, मेरे तृषित ह्रदय को भर दो।

रूप की देवी हो तुम।
Sunday, July 23, 2017
Topic(s) of this poem: inspirational,love and art,love and dreams
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
This lyrical note has been composed on May13,2001
This note shows a very deep inspiration which changed my life a lot
It is a lyric which I composed for my most impressive poetry collection called 'VIRAH VYATHA'
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