अब तो चाँद भी जा छिपा हैं बादलों में,
मान भी जाओ की ये बिखरी रौशनी तुम्हारी हैं ।
अब तो कोई फूल भी नहीं खिले हैं बागों में,
मान भी जाओं की ये बिखरी खुशबु तुम्हारी हैं ।
कब की जा चुकी हैं सर्द हवायें उस पर,
मान भी जाओं ये हवाएं नहीं बल्कि आहें तुम्हारी हैं ।
पतझड़ आ गया, नहीं हैं छाँव अब पेड़ों की गोंद में,
मान भी जाओं इस छाँव की वजह जुल्फें तुम्हारी हैं ।
सूरज कब की किरणे बिखेर रहा हैं आसमान में,
मान भी जाओं इस अँधेरे की वजह काजल तुम्हारी हैं ।
जमी, आसमान, पक्षी, बादल सब खिल रहे हैं,
मन भी जाओं की इसकी वजह हंसी तुम्हारी हैं ।
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Such a nice write..... Keep it up.. You may like to read my poems too....10 Naila