इक्कीसवीं सदी का मानव है प्रगति पथ पर
भौगोलिक सीमाएँ होती जा रही हैं लघु से लघुतर
करते हैं हर दम बात अब मोबाइल से
परंतु दूरी बढ़ गई मानव की मानव से
अब कोई नहीं लिखता चिट्ठी माँ को
जिसमें होती थी प्यार भरी बातें
खानपान की, रिश्तेदारी और त्योहार की
अब होती है एसएमएस, व्हाट्सप्प की अजब सी इबारत
समझ नहीं पाते माँ बाप बेचारे
बस समझते हैं बड़े हो गए बेटे हमारे
रहते हैं लोग एक घर में
मिलते हैं घर में कभी कभार ही
ना कभी गपशप, संगीत और कहानी
व्यस्त है जीवन, समय की कमी
बिन मोबाइल जीवन अनहोनी
सोते जागते उठते बैठते
ऊब चुके हैं बजते मोबाइल से
दूर करो अब मोबाइल से मन
लौटा दो फिर खुद को खुद का बचपन
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आपने मोबाइल फ़ोन के हवाले से वर्तमान समय की विसंगतियों तथा जीवन में व्याप्त कृत्रिमता की ओर ध्यान खींचा है. धन्यवाद. भौगोलिक सीमाएँ होती जा रही हैं लघु से लघुतर परंतु दूरी बढ़ गई मानव की मानव से
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