मोबाइलमय मानव Poem by Dr. Sada Bihari Sahu

मोबाइलमय मानव

Rating: 5.0

इक्कीसवीं सदी का मानव है प्रगति पथ पर
भौगोलिक सीमाएँ होती जा रही हैं लघु से लघुतर
करते हैं हर दम बात अब मोबाइल से
परंतु दूरी बढ़ गई मानव की मानव से

अब कोई नहीं लिखता चिट्ठी माँ को
जिसमें होती थी प्यार भरी बातें
खानपान की, रिश्तेदारी और त्योहार की
अब होती है एसएमएस, व्हाट्सप्प की अजब सी इबारत
समझ नहीं पाते माँ बाप बेचारे
बस समझते हैं बड़े हो गए बेटे हमारे
रहते हैं लोग एक घर में
मिलते हैं घर में कभी कभार ही
ना कभी गपशप, संगीत और कहानी
व्यस्त है जीवन, समय की कमी
बिन मोबाइल जीवन अनहोनी

सोते जागते उठते बैठते
ऊब चुके हैं बजते मोबाइल से
दूर करो अब मोबाइल से मन
लौटा दो फिर खुद को खुद का बचपन

Thursday, December 7, 2017
Topic(s) of this poem: social,social media
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Poem is in Hindi language and about frequent use of mobile in present day and how it is affecting the people's emotion.
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 07 December 2017

आपने मोबाइल फ़ोन के हवाले से वर्तमान समय की विसंगतियों तथा जीवन में व्याप्त कृत्रिमता की ओर ध्यान खींचा है. धन्यवाद. भौगोलिक सीमाएँ होती जा रही हैं लघु से लघुतर परंतु दूरी बढ़ गई मानव की मानव से

1 0 Reply
Sada Bihari Sahu 07 December 2017

धन्यवाद आपको पसंद आई

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