मैंआकाश का बादल Poem by Pushpa P Parjiea

मैंआकाश का बादल

Rating: 5.0

कहीं दिखता अंगड़ाई लेता, कहीं दौड़ता हुआ-सा बादल
कही अकिंचन-सा स्वरूप लिए खड़ा था, ध्यान मग्न साधू की तरह
कहीं लगा, करे है क्रीड़ा एक बड़ा बादल, छोटे बादल संग
कहीं ऊंचे पहाड़ों पर बिछौना बना, जैसे हो रुई कपास का रंग

श्वेत लहर और अपार शांति, उल्लासित कर देती तन और मन को
नीरवता में निमग्न बादल हास्य कर रहे थे मानव से
जनजीवन को गुरु बनकर ज्यों शिक्षा देते थे बादल



कुछ तो हमसे सीखो तुम, धरती से पानी ले उसी को देते हैं
सब कुछ पाया जीवन से तुमने, पर कभी न खुश तुम रह पाए
हम तो बिना सहारे भी देखो धरती अंबर बीच अडिग खड़े
फिर भी जलवर्षा करते कभी, शीतल छांव देकर हर्षाते
तुम्हें खुशियों का जीवन देकर, पल में हम तो बिखर से जाते

अस्तित्व नहीं कोई अपना बस, हैं बनते-बिगड़ते तुम्हारे हेतु
बिना सहारों के चलते जाते तन्हा, बिना शिकायत शिकवे के
बस एक गिला है तुमसे यही, संयंत्रों ने किया जीना दूभर
पहले की तरह अब चाह के भी, बरसना अब तो कठिन हुआ
ग्लोबल वॉर्मिंग ने नमी सोख ली, पग में छाले ही छाले हैं
अब रूप-कुरूप हुआ अपना ही, शीतलता को दिन-रात तरसते

Sunday, December 10, 2017
Topic(s) of this poem: abc
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
ABC
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 23 December 2017

आपकी इस कविता में प्रकृति का मनोरम स्वरुप दक्षता से उकेरा गया है. बहुत सुन्दर. साथ ही प्रकृति से किये गए खिलवाड़ से पर्यावरण को होने वाले नुक्सान की ओर भी सबका ध्यान खींचा गया है. उक्त कविता के लिए आपको बधाई तथा धन्यवाद, बहन पुष्पा जी.

2 0 Reply
Pushpa P Parjiea 10 May 2019

Sorry bhai late reply ke liye or bahut bahut dhanywad bhai is kavita par bahut sahi comment dene me liye

0 0
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success