तकते रहे राहें हम उम्र के हर मोड़ पर
उम्मीद का छोड़ा न दामन क़यामत की दस्तक होने तक
मुस्कान सजाये होठों पर हम जीते गए अंतिम आह तक
सोचा कभी मिल जाय शायद कहीं खुशियों का आशियाँ हमें भी
पर थे नादान हम कि न समझ सके बेवफा ज़माने के सितम आज तक
अंतिम मोड़ पर पता चला कोई नहीं अपना यहाँ
हम तो इक मेहमान थे सबके लिए बस आज तक
कितने नादाँ थे न समझ सके अपनों की फ़ितरत को
कितने नादाँ थे न समझ सके बेगानों की मतलब परस्ती को
हर पल का मुस्कुराना पड़ गया भारी यहाँ
सबने भुला दिया ये कहकर कि हम तो अकेले में भी मुस्कुरा लेते हैं
दर्दे दिल की दास्ताँ न सुना ए दिल! किसी को
ये बस्ती है जहाँ इंसा के दिल पत्थर के होते हैं
अपनों की उदासीनता, स्वार्थ, सामाजिक संबंधों के पाखंड और मतलबपरस्ती से उपजी उदासी व दर्द को आपकी इस कविता में बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है. धन्यवाद, बहन पुष्पा जी. ऐसे ही लिखती रहें. दर्दे दिल की दास्ताँ न सुना ए दिल! किसी को ये बस्ती है जहाँ इंसा के दिल पत्थर के होते हैं
दर्दे दिल की दस्ता को सही स्वरुप में समझने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद भाई बहुत खूब सुरती से आपने सुन्दर लफ़्ज़ों में टिपण्णी की है ... पुनः सुख्रिया भाई
Thanks aloft Ravi kopra ji