मैं एक हक़ीक़त हूँ। Poem by Ahatisham Alam

मैं एक हक़ीक़त हूँ।

कल मेरा तमाशा था
अब तेरा तमाशा है
तुम कहते हो ख़्वाब मुझे
तो तुमको बताता हूँ।
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ

नज़रों का वहम है ये
नज़रों का धोखा है
कब मिटने से हमने
तुमको भला रोका है
कोई कहता है ये मुझसे
दर्द बनके रुलाता हूँ
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

तुम मुझसे बिछड़ कर के
कहते थे रक़ीबों से
जो मेरी नहीं मन्ज़िल
उसे छोड़ के आता हूँ
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

ये ढ़लता सूरज फिर
कहता है यही मुझसे
अब रात का मातम है
मैं सुबह को आता हूँ।
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

मैं ग़म से कहूँ हर पल
बस तेरा सहारा है
एक तुम ही मेरे हमदम
बस तुमको बुलाता हूँ।
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

क्यों ख़ामोश हों लब मेरे
क्यों आंखें हो शर्मिंदा
जो ज़ख्म दिए हैं मुझको
वो तुमको सुनता हूँ।
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

कोई ज़रा पूछे तो
क्या आलम है तेरा आलम
तुझे किस बात की है उलझन
तुझे किस बात का है ग़म
क्यों कहते हो ये हरदम
अश्कों को बहाता हूँ।
मैं एक हक़ीक़त हूँ
जो ख़्वाब में आता हूँ।

Friday, May 1, 2020
Topic(s) of this poem: love and life
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