या वो बेवफा थी, या फिर मैं वफा कर ना सका Poem by Sharad Bhatia

या वो बेवफा थी, या फिर मैं वफा कर ना सका

Rating: 5.0

या तो वो बेवफा थी, या मैं वफा कर ना सका,
वो खफ़ा होकर चली गई, मैं रोक भी ना सका ।।

कभी रोज़ आँखों ही आँखों मे बातें होती थीं,
इज़हार और इंकार की मुलाकातें हुआ करती थी।।
कभी अपने दिल को समझाते, कभी उसको मनाते,
बस इस तरह एक साथ जीने मरने की कसमे खाते ।।

पर यह ज़माने भर को रास नहीं आया।।
और मुझे "हिन्दू" और उसे "मुसलमान" जो बताया,
उन्होंने खींच दी मज़हब की इतनी बड़ी दीवार,
कि मैं उसे लांघ भी नहीं पाया।।

जब वो खफ़ा होकर जा रही थी दूर,
मैं उसे रोक भी नहीं पाया।।
उसकी सिसकती आँखों मे छुपे दर्द को पहचान नहीं पाया,
क्यूंकि मैं हो गया था इतना मजबूर,
इशारा उसका समझ भी नहीं पाया।।
शायद अपनी हिम्मत अपनी खोल ना पाया,
आगे बढ़ कर उसको रोक भी नहीं पाया।।


अब ना वो बेवफा थी, ना मैं वफा कर पाया ।।
(शरद भाटिया)

या वो बेवफा थी, या फिर मैं वफा कर ना सका
Saturday, July 11, 2020
Topic(s) of this poem: sad love
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 12 July 2020

अक्सर धर्म और जाति के बन्धनों में जकड़ी मुहब्बत हार जाती है. समाज और घरवालों का विरोध व परंपराओं के दबाव प्रेमियों को कसमे-वादे तोड़ देने पर मजबूर कर देते हैं. वस्तुस्थिति का बहुत संतुलित चित्रण. धन्यवाद.

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