उस रात रह गया,
दिये की थरथराती लौ पर,
काँपता सुबकता हमारा प्यार
स्याह निशा की स्तब्धता-
थी छा गयी तेरे मेरे दरम्यान,
निगल लिया था अंधकार ने-
हमारे कितने किरण-पुंज,
अविरल अश्रु-प्रवाह के बीच,
थे ब्याकुल तुम, विक्षिप्त मैं,
और साँसों की ऊष्णता से,
थी घुटती हवा हमारे आस-पास,
वेदना-संतप्त मस्तिष्क में,
गुंजित थे तुम्हारे भीगे-भीगे शब्द,
जो डबडबाई आँखों समेत-
मुँह मोड़ कर तुमने कहा था,
"यह मिलन आख़िरी है।"
तुम्हें भी पता था,
कि हमारा कोई भी मिलन,
अंतिम हो ही नहीं सकता,
हम चीरकाल तक मिलते रहे,
और मिलते रहेंगे -
क्षितिज के इस पार भी,
क्षितिज के उस पार भी,
परंतु फिर भी तुमने कहा,
और आहत हुआ था मैं,
पर सच-सच बताना,
क्या स्वयं के ही नश्तर से,
स्वयं को चीर नहीं डाला तुमने,
तुम कहो ना कहो, पर-
तुम्हारे रुँधे कंठ की सिसकियाँ,
सुनसान अकेली रातों में,
मेरी आहों को संगीत दे जाती हैं।
हाँ सन्नाटा है,
उदासी है, अकेलापन भी है,
ठंढी आहें हैं, कुछ तपन भी है,
मन के भावों में बिखराव सा है,
अहसासों में अजीब टकराव सा है,
कभी माँ की बातों से भूचाल आता है,
कभी लिपटकर उनसे -
जी भरकर रोने का ख़याल आता है,
जो अबतक पढ़ा था-
उस दर्द को आज पहचाना,
बड़ा मुश्किल होता है-
अंदर-अंदर घुटना, बाहर मुस्कुराना,
पर हम इसलिए नहीं पिते आँसू-
कि दुनिया के सामने रोने में शर्म आती है,
बस कोई प्यार को मज़ाक़ बना देता जब,
कशम से बर्दाश्त नहीं होता।
विश्वास है मुझको,
लौट आओगी तुम मेरे पास,
पूर्णत: प्यार से सराबोर,
या यूँ कहूँ-
कि लौटना पड़ेगा तुमको,
क्योंकि-
कुछ शब्दों से टूट जाए,
ऐसा बंधन नहीं हमारा,
हो सकता है वक़्त लगे-
कुछ दिन, कुछ साल, कुछ जन्म,
पर वक़्त की इन बंदिशों से,
ना मेरा प्यार कम होगा -
ना मेरा इंतज़ार,
और तुम भी तो ब्याकुल होगी!
मेरे स्पर्श की अनुभूति से दूर,
भला कब-तक स्वाँग भरोगी तुम-
स्वयं के हर्षमय स्वरूप का?
मेरे प्यार! अब तो समझ जाओ,
हम एक दूजे की बाँहों में ही सम्पूर्ण होते हैं।
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