हम जो चाहते, वह मिलता नहीं,
अनचाहा ही मिल जाता है।
जिंदगी अपनी रहती नहीं,
जीवन चौराहा बन जाता है।।
हम नकली को असली समझते,
असली पीछे छूट जाते हैं ।
इसी भ्रमजाल मेंं जिंदगी भर,
हम दौड़ते रह जाते हैं।।
बिधाता ने भी क्या अपनी लीला,
सोचकर जगत यह बनाई है।
कहीं भी कोई रचना बना,
खुद भी सुख नहीं पाई है ।।
इसीलिए मँदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में,
है उमड़ी रहती पूरी भीड़।
सुनते -कहते, रोते, कभी न हँसते,
"नवीन"न अपनी थकान मिटाई है।
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